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Friday, January 9, 2015

09-01-2015


जीवन में दो तरह के लोग ज्यादा याद रहते हैं एक मुसीबत में साथ देने वाले और दूसरे मुसीबत जनने वाले
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बेहतर श्रोता और दर्शक बनने/बनाने की सर्वाधिक संभावना 'युवाओं' में है बजाय इसके कि हम हम अपनी ऊर्जा उन जड़ बुद्धि लोगों में लगाएं.युवा मित्रों को कोंसेप्ट की सही समझ के साथ अगर एक उद्देश्य केन्द्रित काम में आप लगाएं तो वे आपको अच्छा परिणाम दे सकते हैं.
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ये शुरुआत है.आगाज़ है.संभव हुआ तो कभी ''चित्तौड़गढ़ फिल्म फेस्टिवल'' भी होगा.मगर सबकुछ विधिवत रूप से 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' के गठन के बाद.अभी एक मित्रों की मंडली है जो अपने अनौपचारिक ढंग से यह सबकुछ कर रही है.खैर बहुत सारे मित्रों का साथ मिला है तब जाकर चित्तौड़ में अब 15-16 नवम्बर 'सिनेमामय' बन पाया.सफर में साथ देने वाले साथियों का शुक्रिया.उदयपुर से आने वाले मित्रों का खासकर स्वागत.व्यक्तिगत रूप से खुशी है कि संजय भाई,हिमांशु भाई और शैलेन्द्र भाई चित्तौड़ आयेंगे.सिनेमा पर बातहोगी.चित्तौड़ के हमारे मित्र,छात्र इस आयोजन का पूरा लाभ लेंगे ऐसी आशा है.ये सबकुछ मुझमें उत्साह भर रहा है.किसी ने सवेरे चार बजे उठकर अतिथियों को लेने जाना चुना है.कोई जन गीत सुनने/सुनाने और याद करवाने में लगा है.कोई अनजान है फिर भी पोस्टर चिपकाने में मगन है.कोई कैमरा दे गया.कोई मुफ्त में आयोजन का वीडियो बनाएगा.कोई बैनर छपवा गया.कोई भोजन और आवास की सुविधा दे गया. कोई अपने चित्र उपहार दे रहा है.इतना कुछ मगर सारा का सारा नि:स्वार्थ.चित्तौड़ के बहुत सरे मित्र इन तीन सत्रों में आने की हामी भरे बैठे हैं.आप भी आना चाहें तो ज़रूर आएं.सिनेमा को लेकर सार्थक संगत होगी ऐसा दावा है.
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यह अपील करते हुए मुझे पूरा अहसास है कि कभी तो हम गांवों और गरीबों को लेकर कुछ सीरियस स्टेप्स लेंगे.आज सरकारी स्कूलों में जो बच्चे पड़ते हैं वे लगभग गरीब और वंचित वर्ग से ताल्लुक रखते हैं.उनके पास अपनी पठन सामग्री खरीदने तक के भी पैसे नहीं हैं ट्यूशन तो जाने कब कर पायेंगे.उनके अभिभावक लगभग अनपढ़ और अपने जीवन के जुगाड़ में ही इतने थक-हार जाते हैं कि समझ ही नहीं पाते कि इस फटे हाल को कहाँ-कहाँ से सिले.मामला बड़ा गंभीर है.देश का बड़ा हिस्सा गाँव हैं.इन बच्चों को घर में ठीक से भोजन नहीं मिल पाता आप पौष्टिक की बात करते हैं.उनके घरों में पढ़ने-लिखने का अलग कमरा तो छोड़ो टेबल-कुर्सी तक नहीं मिलती.पेरेंट्स मीटिंग के लिए इनके माँ-पिताजी को वक़्त नहीं है.घरों में शोचालय नहीं है.लड़कियों को शोच्जाने के लिए अन्धेरा होने का इंतज़ार करना पड़ता है.होमवर्क क्या बला है वे नहीं जानते.सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को घर पर पढ़ने के लिए कहने-टोकने वाला और प्रेरित करने वाला कोई बचा नहीं है शायद.स्कूल टाइम में अगर गाँव में दस-बीस बच्चे खेलते-टहलते मिल जाए तो अभिभावकों की जागरूकता देखें कि वे बीड़ी फूंकते रहेंगे मगर किसी से एक सवाल नहीं करेंगे कि स्कूल के वक्त में वे यहाँ क्यों? उन बच्चों को मालूम ही नहीं है कि उनकी प्रतियोगिता जिनसे है वे तमाम ज़रूरी सुविधाओं में जी रहे हैं और ज्यादा अपडेट हैं.निजी और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को मिलने वाली आधारभूत सुविधाओं में ज़मीन-आसमान का अंतर है.इसलिए महानुभाव इन बच्चों की तुलना भी नहीं करें.हालात बहुत बदतर हैं.जहां गाँव के लोग जागरूक हैं वहाँ तस्वीरें बदल भी रही हैं.हमने भी अखबारों में कुछ खबरें पढ़ी है जहां गाँव जागे हैं.वैसे कह दें कि ये खाई जाने कब भरेगी.अव्वल तो यही चिंता का विषय है कि जिस युवा पीढ़ी को इस दौर में टीवी,मोबाइल और इंटरनेट का जिताना सचेत होकर उपयोग करते हुए आगे बढ़ाना चाहिए कर नहीं रहे हैं बल्कि वे इन समीकरणों में ही उलझ कर खुद का वर्तमान और भविष्य खोद रहे हैं.फिलहाल ये चिंता गाँव के गरीब के मद्देनज़र ही है.
इन चित्रों में दिख रहे ये बच्चे हर पिछड़ी बस्ती में मिल जायेंगे.मुझे लगने लगा है कि तमाम गरीब बच्चों की शक्लें एक सी ही होती है.सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले इन बच्चों की हालतें बड़ी खराब होती जा रही है.पहनने को कपड़े नहीं,रोज के लिए कॉपियां,जूते,मौजे,स्कूल बस्ता नहीं.मुफ्त में मिली है तो केवल किताबें.प्राथमिक कक्षा एक से पाँच तक कोई छात्रवृति भी नहीं है.पेन्सिल और पेन का टंटा तो चलता ही रहता है.पूरे कार्तिक मास वे दानकी/मजूरी करने को मजबूर होते हैं.लहसून चोपते हैं.सरसों कटवाते हैं.भुट्टे छिलवाते हैं.ये कई गांवों का सच है.कभी माँ-पिताजी के एक साथ मजूरी जाने पर घर पर मुर्गों,बकरियों की देखभाल करते हैं.कई छोटे बच्चों की देखभाल में ही जवान हो जाते हैं.कई आधे वक़्त ननिहाल चले जाते हैं.जिसके ज्यादा बच्चे होते हैं उन्हें कभी भुवा कभी,मौसी कभी,मामा अपने नवजात की देखभाल में हांक ले जाते हैं.
मेरा निवेदन आप लोगों से केवल इतना भर है कि अगर संभव हो तो आप अपने गैर ज़रूरी सामान इन तक पहुँचा दें तो इनका बड़ा भला होगा.घर में बिना काम में पड़े कपड़े,स्कूल बेग,पेन्सिल,पेन,जूते,मौजे,पुराने स्वेटर इन तक पहुंचाएं.अगर ज्यादा संभव हो तो कभी अपना जन्मदिन या शादी की वर्ष गाँठ मनाने के निहित कुछ राशि खर्च कर इनके लिए कॉपी,किताब खरीद कर भेंट कर दें.अपने आसपास के कुछ स्कूलों को देख गोद लें लें.यदा-कदा आते-जाते रहें.हमारे कई अध्यापक साथी भी अपनी गाँठ से ये खर्चा करते भी हैं मगर पूरा समाज जुड़ेगा तो दृश्य बदलेगा.ये पक्की बात है कि आप इस काम के बदले बहुत संतुष्टि मिलेगी.वैसे भी शिक्षा ही है जो अगर ठीक से मिल गयी तो पूरी तस्वीर बदल सकती है.
खाली दीपदान करने,बेकार में पटाखे फोड़ने,शादी-ब्याह में दिखावा करने से पहले सोचें क्या इन पैसों से आप किसी गरीब बच्चे तो जीवन दे सकते हो.जब गरीब सक्षम हो जाएगा तो समाज भी समानतामूलक बनेगा.गैर-बराबरी कम होगी.असल में यह उनको दी गयी भीख नहीं एक समर्थ की असमर्थ को मुसीबत में दी सहायता है.जितने भी सांस्कतिक और सामाजिक संगठन हैं अगर अपना कुछ समय किसी एक सरकारी स्कूल में लगाते हैं तो शायद कुछ बदलाव आ सकता है.बरिब बस्ती बहुल इलाके में चल रहे सरकारी स्कूल आपका इंतज़ार कर रहे हैं.
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बीते दिनों कई काम किये.'चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल' के आयोजन,ब्लॉग निर्माण, प्रचार-प्रसार,आमंत्रण पत्र,पोस्टर आदि की डिजाइनिंग से लेकर तमाम कामों में मैं मुकेश के साथ ही था.इस आयोजन ने मुझे कई चित्रकार मित्र दिए, राहुल यादव जैसे खोये हुए शिष्य भी इसी आयोजन की देन रही.बहुत मस्ती की.पत्नी और बेटी अनुष्का सहित इन सर्दियों की छुट्टियों में हमने बहुत तल्लीनता से इस आयोजन का आनंद लिया.एकदम नया अनुभव था.शहर के लिए इस तरह का नया आयोजन प्लान करने के लिए मैं मुकेश शर्मा और उसके तमाम दोस्तों का शुक्रिया कहना चाहूँगा जिन्होंने इसे सफल बनाया.खासकर आर्थिक सहयोग करने वाली सभी संस्थाएं.इस आयोजन की समस्त जानकारियाँ इसके ब्लॉग पर मौजूद हैं.जिसे मैंने तैयार किया है.आपको भी रूचि हो तो देखें.लिंक दे रहा हूँ. आस रखता हूँ कि मुकेश चित्तौड़ में चित्रकारी को लेकर कुछ और सार्थक आयोजन तैयार करेगा.
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नन्द दा गुज़र गए.साल दो हजार में पहली बार पल्लव भैया के साथ चित्तौड़ रेलवे स्टेशन पर मिलना हुआ.वे उदयपुर से जयपुर जा रहे होंगे शायद.भैया ने कहा उनके लिए कुछ उपहार लेकर चलते हैं.बहुत सोचने के बाद भैया ने 'अंगूर' तुलावाए.उन्होंने कहा नन्द जी के इस उम्र में दांत नहीं है अंगूर ही बेस्ट रहेंगे.'स्नेह और आत्मीयता में कितना ख़याल रहता है अपनों का'.कुछ देर की संगत ही सही यादगार रही.कुछेक बार पोस्टकार्ड भी भेजे और आएं भी.फिर बाद में स्पिक मैके के एक अधिवेशन में उदयपुर में ही उन्हें आमंत्रित किया.उन्हें टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ा भी.मित्रों से बतियाने की उनकी अदा मुझे बहुत भाती थी.हमारे मित्र राजेश चौधरी जी बता रहे थे वे जब कानोड़ या उदयपुर में रहे तब अपने मित्र नरेन्द्र निर्मोही के साथ अक्सर पैदल टहलते हुए नन्द जी के घर चले जाते और फिर घंटों बतियाते.संगत का सुख भी कितना आल्हादकारी होता है न.उन्हें हार्दिक श्रृद्धांजलि
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मेरा मुझमें कुछ नहीं,मैं जितना भी कुछ हूँ सभी का कुछ न कुछ मुझमें है.मुझमें एक बड़ी जगह घेरे बैठे हैं तो डॉ. ए.एल.जैन साहेब जो कुछ दिन बीत जाए तो फोन कर कहते हैं ''काहे माणिक बड़ा आदमी बन गया क्या कितने दिन बीते गए बात नहीं की''.जैन साहेब मेरे दोस्त भी है गार्जन भी.उनके साथ से मैं सनाथ हूँ.चित्तौड़ जैसी जगह पर ख़ास साधक किस्म के लोगों के 'सानिध्य' की अपनी विलग अनुभूतियाँ रही है.रेणु दी जयपुर चली गयीं.सत्यनारायण व्यास जी से मिलना नहीं होता.कौटिल्य जी भट्ट भी उदयपुर जा बसे.कइयों की शादी हो गयी.कई बाहर नौकरी पा गए.नए सम्बन्ध भी बने हैं मगर पुरानों का अपना आनंद है गरिमा है.

इस संगत वाले चित्र के बहाने ही कुछ कहना चाहता हूँ.इन दिनों लगता है.एक तिमाही गुज़र गयी होगी आज सच कहूं मैं अपने कुछ रूठे हुए दोस्तों को ज्यादा याद करता हूँ.उनके प्रति सम्मान आज भी उतना ही है.बस जान नहीं पाया कि खता क्या रही मेरी या कि फिर 'दोस्ती' सिर्फ विचारधारा के टंटे पर ही अटकी थी.एक 'अपराधबोध' के साथ जी रहा हूँ. दोस्ती जो उन्हें नहीं रुची और डोर टूट गयी, ऐसी टूटी कि हम अपने जन्मदिन पर दुनियाभर के 'लाइक्स' के बीच उनका 'लाइक' देखने तो तरस गए.विचारधारापरक आयोजनों से मतभेद हो सकते हैं,होंगे भी मगर फिर भी.क्या हमारे बीच के रिश्तों के सफ़र में एक दिन यही मुकाम आना था.तो इस बात से मैं बड़ा दुखी हूँ.

कई बार लगा,फोन कर बतियाऊँ.मगर फोन नहीं लगा पाया.इस बीच कई आयोजनों के कई सन्देश भी भेजें.मगर प्रत्यूत्तर नहीं मिला तो लगा 'अपराधी' मैं ही हूँ.जानता हूँ इस अलगाव से कुछ भी हासिल नहीं होगा .बात उन तक पहुंचे कि यह अटकाव मुझे नहीं रुचा.मित्रता अपनी जगह हैं.वैचारिक मतभेत अपनी जगह..हो सकता है मैं गलती पर हूँ मगर कोई गलती बताएं तो...दोस्तों पता नहीं यह बिछोह उन्हें कैसा लग रहा होगा.फिलहाल मैं 'अपराधी' की तरह महसूसता हूँ. और अब 'बिछोह' को ही अंतिम सत्य मान रहा  हूँ हालाकि यह बहुत मुश्किल है.कुछ भी हो मैं उनके अब तक के साथ का सार्वजनिक रूप से शुक्रिया कहता हूँ.आशा करता हूँ राह निकलेगी.बेहतर दोस्त जीवन में हमेशा ज़रूरी रहे हैं.
 
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